मानव धर्म का विज्ञान 3

मानव धर्म का विज्ञान

(An Exploration of Science in Manava Dharm)

Part - III

Chapter 1

(वैदिक धर्म के तीन स्वरुप)

विश्व के विभिन्न देशों के पास अपनी-अपनी सभ्यताओं एवम् संस्कृतियों के अनुरूप अपना समृद्ध साहित्य है, जिसका सृजन वहाँ के विद्वानों द्वारा किया गया है परन्तु वैदिक साहित्य ही एक मात्र त्रिआयामी हैं। इस लेख में उन्हीं तीन आयामों (स्वरूपों) पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है ।

1. वैदिक साहित्य:- यह साहित्य विभिन्न क्षेत्रों के ज्ञान से परिपूर्ण है। एक-एक

क्षेत्र में अनेकानेक खोजें होती रहीं और हर क्षेत्र के ज्ञान में वट वृक्ष की भाँति इतनी वृद्धि होती रही, कि ज्ञान की शाखा-प्रशाखाएं बनती चली गयीं । इन शाखाओं के हिसाब से योग्य व्यक्तियों द्वारा इनको याद करने की परम्परा बना ली गयी और इस प्रकार वेदी (एक-वेदी) द्विवेदी (दो वेद वाले) त्रिवेदी (तीन वेद वाले) तथा चतुर्वेदी अर्थात् चारों वेद की शाखाओं का ज्ञान रखने वाले विद्वान समाज में उत्पन्न हुए ।

Chapter 2

(वैदिक “धर्म दर्शन” – एक जीवन पद्धति)

पिछले दशाब्द में भारत के उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) ने अपने एक निर्णय (दिनांक 11-12-1995) में यह कहा था, कि वैदिक धर्म-दर्शन कोई Religion (मज़हब) नहीं हैं, वह तो एक “जीवन पद्धति” (Way of Life) है, अर्थात् सुखी और स्वस्थ जीवन जीने की एक विधा अर्थात् कला है। ऐसा प्रतीत होता है, कि उस समय न्यायालय के समक्ष ‘वैदिक-धर्म’ का सांस्कृतिक पक्ष ही प्रस्तुत किया गया था। परिणामस्वरूप मानव धर्म के मूल प्राकृतिक सिद्धांतों जैसे (i) चक्र / परिवर्तनशीलता/ पुनर्जन्म का सिद्धान्त, (ii) अनुलोम-विलोभता का सिद्धान्त, (iii) कर्म का सिद्धान्त, (iv) निष्काम-कर्म (यज्ञ) का सिद्धान्त (v) मोक्ष का सिद्धान्त (vi) यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे आदि से सम्बन्धित जानकारी विश्व समाज को मिल ही नहीं पायी । इन प्राकृतिक सिद्धांतों का ज्ञान तथा इन्हें जीवन में धारण करने से ही मानव का समग्र विकास होता है और यही जीवन जीने की वह विधा अर्थात् कला (Art) है; जिस पर बहुत कम मनीषियों ने चिन्तन किया लगता है, अतएव इस विधा पर निम्न पंक्तियों में संक्षिप्त रूप से प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है ।

Chapter 3

(ॐ का प्रभुत्व – एक वैज्ञानिक विश्लेषण)

विज्ञान के युग में अब कथाओं एवम् प्रतीकों के मूल भाव का स्पष्टीकरण आवश्यक हो गया है, क्योंकि नयी पीढ़ी द्वारा आज सभी कुछ प्रमाणों के आधार पर ही जाना एवं समझा जाता है, अतएव निम्न पंक्तियों में वैज्ञानिक दृष्टि से यह समझने का प्रयास करेंगे, कि “ॐ” ध्वनि हिन्दू धर्मशास्त्रों की सबसे मूल्यवान धरोहर कैसे बनी एवं उसे सर्वोच्च पदवी क्यों प्रदान की गयी ?

यह तो सर्वविदित ही है, कि वैदिक-धर्म में “ॐ” ध्वनि को अनादिकाल से ही परमात्मा के पवित्रतम नाम के रूप में जाना जाता रहा है तथा वैदिक धर्मानुयायियों के सभी सम्प्रदाय “ॐ” ध्वनि एवम् “ॐ” को समान रूप से आदर भाव से पूजते आ रहे हैं। गीता में कहा है- “ओमितिएकाक्षरम् ब्रह्म” (8/13) अर्थात् ब्रह्म का एक अक्षर का नाम “ॐ” है । यह एक अक्षर का नाम इतना ‘अहम्’ है, कि सभी मंत्रों के पूर्व इसको उच्चारण किए जाने का विधान है ।

Chapter 4

(मानव धर्म का आधार – गायत्री मंत्र)

ओऽम् भूःर्भुवः स्वः, तत् सवितुर्वरेण्यम्, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात् ।

हिन्दू परिवारों में ‘गायत्री-मंत्र’ को बड़ी श्रद्धा एवं आदर की दृष्टि से देखा जाता है, भले ही वह वैष्णव हो, शैव हो अथवा आर्य-समाजी किसी भी सम्प्रदाय का ही क्यों ने हो । ‘गायत्री-मंत्र’ को ‘सावित्री-माता’ एवं ‘वेद-माता’ के नाम से भी जाना जाता है। इसे आदिकाल से ही उच्च प्राथमिकता दी जाती रही है तथा सभी मंत्रों में श्रेष्ठ एवं ‘महामंत्र’ माना जाता है । अतएव निम्न पंक्तियों में इस मंत्र की विशेषताओं पर प्रकाश डाला जा रहा है।

आज परम्परा से इस मंत्र का जो अर्थ प्राप्त है और जो अनेक पुस्तकों में भी लगभग एक जैसा ही मिलता है, उसको काव्यात्मक ढंग से कुछ निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है ।

Chapter 5

(प्रतीक विज्ञान)

भारतीय ऋषियों की अनेक खोजों में से ‘प्रतीक विज्ञान’ की खोज एक अति महत्वपूर्ण खोज है । यह विज्ञान जनसाधारण की सुविधा के लिए एक सरलीकरण की प्रक्रिया है और इसीलिए अधिकांश वैदिक वाङ्मय प्रतीकों की भाषा में लिखा गया है तथा इन प्रतीकों को हमारे कवियों, लेखकों, दार्शनिकों ने अपने लेखनों में बहुतायत से प्रयोग भी किया है।

1. प्रतीक विज्ञान का विस्मरण:- हिन्दू समाज अपने ज्ञान के विज्ञान को भूल गया था, अतएव निर्बल हो गया । फलतः विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा पराजित हुआ तथा उसे एक सहस्त्र वर्षों तक अनेक प्रकार की प्रताड़नाओं को सहन करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इतना ही नहीं, इस काल में ज्ञान-विज्ञान के स्त्रोत ग्रंथ, शास्त्र, संहिताए और पता नहीं क्या-क्या जलाकर नष्ट कर दिये गये एवम् देश से बाहर भी ले जाए गए। गुरुकुल, विद्यालय, आश्रम आदि सब नष्ट कर दिए गये । 9 दिसम्बर से 13 दिसम्बर, 1998 को दिल्ली में हुए वेद सम्मेलन में यह बतलाया गया, कि वेदों का 90% साहित्य नष्ट कर दिया गया है अथवा बाहर चला गया है । मात्र 10% साहित्य ही शेष है। इस सब का परिणाम यह हुआ, कि देश घोर अज्ञानांधकार में डूब गया ।

Chapter 6

(मूर्तिपूजा एक वैज्ञानिक मीमांसा)

मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में आज विश्व समाज में बहुत भ्रान्ति फैली हुई है, अतएव निम्म पंक्तियों में इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा है ।

1. श्रद्धा का आधार :- किसी व्यक्ति विशेष, महापुरुष, राजा, नेता, गुरु आदि के चित्र अथवा मूर्तियाँ बनाने का चलन प्राचीन काल से चला आया है। ये सभी लोग समाज के प्रतिष्ठित, गणमान्य व्यक्तियों में होते थे, अतएव जनता प्रतीकों के माध्यम से उनके प्रति आदर भाव प्रकट करती रही है। वास्तव में, मूर्ति वह व्यक्ति विशेष तो नहीं है, परन्तु उस व्यक्ति का स्वरूप होने के कारण आदर एवम् श्रद्धा भाव से पूजनीय रहा है तथा अपने पूज्य के प्रति आदर एवम् श्रद्धा प्रकट करने की यह सरलतम विधि भी है । इसी प्रकार सृष्टि का सृजन करने, नियमन करने, एवम् संहार का महानतम कार्य ईश्वर के द्वारा होता है, अतएव वह परमात्मा भी अति श्रद्धा और आदर का पात्र है। चूँकि वह किसी को दिखलायी नहीं पड़ता, अत: उस परमात्मा को चित्र अथवा अधिक आकर्षक मानव मूर्ति के रूप में चित्रित कर आदर प्रकट किया गया है। मूर्तियाँ भी कई प्रकार की वस्तुओं से बनायी गयी, जैसे:- मिट्टी, पीतल, लोहा, सप्तधातु (Bronze), लकड़ी, पत्थर आदि ।

Chapter 7

(पास्य-देवो की वैज्ञानिक व्याख्या)
ईश्वर उपासना जीवन का एक आवश्यक अंग है। उपासना का अर्थ है, ईश्वर के पास आसन लगाना अर्थात् उसके पास बैठना । ईश्वर के अतिरिक्त उसके बनाए अन्य देवताओं की उपासना करना भी ईश्वर की उपासना करना जैसा ही है, क्योंकि सारे देवता उसी ईश्वर के अंश से ही उत्पन्न होते हैं। वास्तव में उपासना का अर्थ है, व्यष्टि का समष्टि से संयोग करा देना अर्थात् व्यक्ति की आत्मा जो छोटे घेरे में कैद होकर रह गयी है, उसको विराट में लीन करके बारम्बार के जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा दिला देना। अतएव मानव का क्रमबद्ध विकास करने हेतु सर्वप्रथम ईश्वर के अंश से उत्पन्न देवताओं की उपासना करना प्राथमिक सोपानों पर से गुजरना जैसा है, क्योंकि अन्त में वे सभी उपासनाऐं ईश्वर के पास पहुँचने के साधन ही तो हैं। अत: निम्न पंक्तियों में उपास्य देवों की व्याख्या क्रमशः प्रस्तुत है ।

Chapter 8

(गंगा – आकाशगंगा का प्रतीक)

सनातन धर्म में ‘गोविन्द’, ‘गायत्री’, ‘गो’ और ‘गंगा’ नामों का भारी महत्त्व माना जाता है। चारों नामों में से ‘गायत्री’, ‘गंगा’ एवम् ‘गो’ के सम्बन्ध में एक लम्बे समय से समाज में भ्रान्ति चली आ रही है। इससे देश को भूतकाल में भारी हानि हुई है, और अभी भी हो रही है तथा आगे भी सम्भावना बनी रहेगी, अतएव निम्न पंक्तियों में ‘गंगा’ शब्द की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि तथा ‘गंगा’ ‘आकाशगंगा’ की प्रतीक है, इस विषय पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है ।

1. “गंगा नदी”- आकाशगंगा का प्रतीक:- हमारी आकाशगंगा में एक खरब से भी अधिक तारे (सूर्य) हैं। इन सूर्यों से हम सभी पर निरन्तर अनन्त शक्ति-कणों (Electro Magnetic Particles) ब्रह्माण्डीय ऊर्जा (शक्ति कणों) की वर्षा की वर्षा होती रहती है, इस प्रकार से सूर्य हम सब पृथ्वीवासियों के लिए ‘प्राण-उर्जा’ का स्रोत हैं। ‘ब्रह्माण्डीय ऊर्जा’ (चुम्बकीय विद्युतकणों) की वर्षा का चित्र (P-261, Tao of Physics) से लिया गया है। आकाशगंगा एक छोर से दूसरे छोर तक एक श्वेत नदी की भाँति फैली हुई है। ठीक उसी प्रकार ‘गंगा-नदी’ भी हिमालय पर्वत के गोमुख से लेकर गंगासागर तक विस्तृत है तथा श्वेत रूपिणी भी है ।

Chapter 9

(गौ – मातृभूमि का प्रतीक)

सनातन धर्म में ‘गोविन्द’, ‘गायत्री’, ‘गंगा’ और ‘गो’ नामों का भारी महत्व माना जाता है। चारों नामों में से ‘गायत्री’, ‘गंगा’ एवम् ‘गो’ के सम्बंध में लम्बे समय से समाज में एक भ्रान्ति चली आ रही है। इसके कारण देश को भूतकाल में भारी हानि हुई है और अभी भी हो रही है तथा आगे भी सम्भावना बनी रहेगी । इन के सम्बंध में अनि हो का जन्म कब और कैसे हुआ, इस बात को समझने हेतु सर्वप्रथम ‘प्रतीकीकरण यो सिद्धान्त एवम् प्रतीकीकरण के कुछ उदाहरणों को निम्न पंक्तियों में समझने का प्रयास करेंगे । (‘सनातनधर्म का आधार-गायत्री मंत्र’ एवम् ‘गंगा’-आकाशगंगा का प्रतीक नामक लेख पुस्तक के इसी भाग में देखें।)

1. “प्रतीकीकरण” (Symbolisation) का सिद्धान्त – सनातन धर्म का आधार :-

वस्तुतः ‘परमात्मा’ एवम् सभी परमात्म-शक्तियाँ अव्यक्त हैं तथा उन सभी शक्तियों का स्वरूप निराकार है, परन्तु ऋषि विश्वामित्र ने सर्वप्रथम ‘गायत्री-मंत्र’ द्वारा ‘सगुण-साकार’ उपासना के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । ऐसा लगता है, कि वैदिक काल के प्रारम्भ में ही साकार प्रतीकों की अवधारणा कर ली गई थी तथा ब्राह्मणग्रंथों में इन्हीं देवताओं की कुछ और विकसित रूप से व्याख्या की गई।

Chapter 10

(वैदिक शासन-व्यवस्था – ऋषि तंत्र)

मानव समाज को अधिक से अधिक सुख एवम् समृद्धि कैसे प्राप्त हो, इस विचार पर हमारे पूर्वजों ने भरपूर चिन्तन एवम् मन्थन किया था और एक ऐसे अनुशासित सका एवम् राज्य की रचना की थी. जिस का अनुसरण करके हर मानव सांसारिक भोगी है साथ-साथ यथासम्भव ईश्वर तक पहुँच जाये ।

आज हम समाज में राज्य शासन व्यवस्था के कई स्वदेशी और विदेशी नामों की चर्चा सुनते हैं । जैसे:- राजतन्त्र, एकतन्त्र, अधिनायकवाद, साम्यवाद, समाजवाद, पूँजीवाद, प्रजातन्त्र इत्यादि । सभी प्रकार की शासन व्यवस्थाओं में कुछ न कुछ अच्छाइयाँ और बुराइयाँ हैं। आज संसार के अधिकांश देशों में प्रजातन्त्र शासन व्यवस्था मान्य है। ऐसा लगता है, कि मानव समाज ने किसी न किसी काल में सभी प्रकार की शासन व्यवस्थाओं का अनुभव कर लिया है। ‘ऋषितन्त्र’ पर चर्चा करने से पूर्व तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से अन्य व्यवस्थाओं पर पहले निम्न पंक्तियों में संक्षिप्त चर्चा की जा रही है।

Chapter 11

(गोत्र-विज्ञान)
मानव जाति के विकास के लिए शादी-विवाह एक प्राकृतिक साधन है। भारतीय परम्परा के अनुसार इस अवसर पर ‘वर-पक्ष’ एवम् ‘वधू-पक्ष’ के गोत्र पर विचार अवश्य किया जाता है। गोत्र की बात पर चर्चा होकर अनेक बार सगोत्र होने अथवा हीनगोत्र होने के विचार से रिश्ते जुड़ने से रह जाते हैं । गोत्र सम्बन्धी वैज्ञानिक जानकारी के अभाव में नैतिक व सामाजिक नियमों के अवमूल्यन से उत्पन्न एड्स जैसे खतरों को जानते हुए भी आज की युवा पीढ़ी ने अब अपना जीवनसाथी स्वयं चुनना ही शुरू नहीं कर दिया है, बल्कि पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करते हुए विवाह से पूर्व डेटिंग, उन्मुक्त यौनाचार एवम् बिना विवाह के साथ-साथ रहने तक के निर्णयों को अंजाम देना शुरू कर दिया है। इस प्रकार के विवाह से उत्पन्न सन्तान ऐसे हैं, जैसे येन-केन-प्रकारेण खेत में बीज बो दिया गया, जैसा-तैसा पौधा हो गया और कुछ भी फल की गुणवत्ता हो गई। बस सब कुछ अनिश्चित। अतएव विज्ञान के युग में जबकि नई पीढ़ी रॉकेट एवम् रोबोत की दुनियाँ पर सवार होकर अन्तरिक्ष तक पहुँच चुकी है, हमें गोत्र परम्परा पर भी कुछ वैज्ञानिक विधि से विचार कर लेना आवश्यक है ।

Chapter 12

(प्राण – विज्ञान के शब्दो में)

सम्पूर्ण योगदर्शन में ‘प्राण’ का विशेष महत्व है । गीता, पातंजलि योग दर्शन एवम् आयुर्वेदशास्त्र में विशेष रूप से इस पर चर्चा हुई है ।

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।

यते न्द्रियमनो बुद्धिर्मु निर्मो क्षपरायणः।।

(गीता-5/27)

अर्थ:- नासिका में विचरण करने वाले ‘प्राण’ और ‘अपान’ को सम करके इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि को स्थिर किया जा सकता है इत्यादि ।

कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ‘प्राण’ और ‘आत्मा’ एक ही बात है, जबकि अन्य ‘प्राण’ को ‘श्वॉस-प्रश्वॉस’ की संज्ञा मानते हैं । वास्तव में जिस प्रकार प्रकृति (जड़) एवम् पुरुष (चैतन्य) इन दो के संयोग से सृष्टि का निर्माण हुआ है, ठीक उसी प्रकार मानव शरीर में देह, प्राण, मन, बुद्धि ये सभी ‘जड़-प्रकृति’ के अंश से उत्पन्न हैं तथा अदृश्य ‘आत्मा’ की उपस्थिति के कारण ये सारे जड़ पदार्थ ‘चैतन्य’ जैसे लगते हैं।

Chapter 13

(Scientific Analysis of Homoeopathy)

1.1 यह पेपर आधुनिक विज्ञान के साथ-साथ प्राचीन दर्शन के संबंध में होम्योपैथी की अवधारणा को समझाने का प्रयास करता है। यह रोगों के निर्माण में मानव मस्तिष्क की भूमिका और उचित ऊर्जा स्तर की होम्योपैथिक खुराक द्वारा रोग का प्रतिकार करने की आवश्यकता की व्याख्या करता है।

1.2 चीजों में से एक, जिसने वैज्ञानिक जांचकर्ताओं को हैरान कर दिया है, वह है अतिरिक्त संवेदी धारणाओं से संबंधित कहानियों की लगातार पुनरावृत्ति। ऐसी कहानियाँ बिना उचित स्पष्टीकरण के प्रकाश में आती रहती हैं। वहाँ एक है, जहाँ एक स्त्री ने स्वप्न देखा, कि उसका पुत्र युद्ध में मारा गया है। वह उठी, घड़ी देखी, रात के दो बजे थे। अगले दिन एक टेलीग्राम आया जिसमें बताया गया कि उसके बेटे को रात 2 बजे मार दिया गया। एक अन्य महिला ने सपना देखा, कि उसका बेटा उससे मिलने आया, जिसने कहा, “मैं इस दुनिया को छोड़कर एक बेहतर जगह पर जा रहा हूं और तुम्हें दोबारा नहीं देख पाऊंगा। उसे अगले दिन एक संदेश मिला, जिसमें कहा गया था, ” बेटा भौतिक संसार छोड़ चुका था।”

Chapter 14

(मानव धर्म की समग्र दृष्टि – सत्यम् शिवम् सुन्दरम्)

वैदिक धर्म में अनेक विशेषताएं हैं, उनमें से ‘समग्रता की सोच’ एक ऐसी सोच है, जिसके कारण यह धर्म सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवम् सार्वजनीन धर्म बना । इसीलिए यह ‘मानव-धर्म’ भी कहलाया । निम्न पंक्तियों में इस सम्बन्ध में कुछ तथ्य प्रस्तुत हैं।

1. समग्रता की सोच :- भारतीय मनीषियों ने अपनी सर्वतोमुखी खोजों में अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । प्रकृति के रहस्यों की जाँच करते-करते, उन्हें अनेक मोती हाथ लगे, जिन्हें उन्होंने जीवन की माला में बड़े सुन्दर ढंग से पिरोया और हमें विरासत में दे गये । समग्रता की सोच उनमें से एक ऐसा अनमोल मोती है, जिसने “सत्यम्-शिवम् सुन्दरम्” जैसे महान सूक्त को जन्म दिया । इस समग्रता के विचार को उपनिषद् के निम्न श्लोक द्वारा बड़े सुन्दर ढंग से व्यक्त किया गया है-

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम्, पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

परन्तु हम मूल उद्देश्य को समझ नहीं पाये और अनेक स्थानों पर हमने उनके अर्थ के अनर्थ कर डाले तथा दिग्भ्रमित हो गये। उपरोक्त सूक्त भी अनेक भ्रान्त धारणाओं में से एक है। यह सूक्त दूरदर्शन वालों ने भी किसी भ्रान्ति अथवा अज्ञात भय के कारण अपने पटल पर से काट दिया। परन्तु शेष विद्वत्-समाज भी इस सम्बन्ध में दिग्भ्रमित है।

Chapter 15

(मंगल कामना के प्रतीक)

वैदिक ऋषियों ने वास्तुशास्त्र, स्थापत्यकला, मूर्तिकला, राग-रागिनियाँ, वाद्य-संगीत, नाट्य-लीला, अभिनय-कला, भरत नाट्यम्, कुचीपुड़ी, ओडिसी आदि का आविष्कार करके मानव जीवन को विविध प्रकार से सजाया तथा समृद्ध किया है। उपरोक्त विद्याओं मैं मुख्य बात यह है, कि वे सभी ईश्वर की ओर ले जाती हैं अथवा मन को ईश्वर की अधांगिनी (प्रकृति) से जोड़े रखती हैं तथा उनमें से प्रत्येक विधा का उद्देश्य मानव मन की हलचल को शान्त करना है एवं उसे समाधि अवस्था तक पहुँचा देना है।

भारतीय मनीषियों ने वास्तु-शास्त्र एवं धर्म-शास्त्रों सहित अनेक शास्त्रों के लेखन में प्रतीकों की भाषा का प्रचुरता से प्रयोग किया है । ‘प्रतीक’ मौन की भाषा है। शान्ति का संगीत है तथा संस्कृति की महिमा का मूक गीत है । प्रतीकोपासना अर्थात् बिन्दु में सिन्धु को देखने की विधा है अथवा गागर में सागर को समाहित करने का प्रयास है। प्रतीकोपासना कम से कम चिह्नों द्वारा अथवा जनभाषा के स्थान पर कला की सुन्दर अभिव्यक्ति का माध्यम है। जिस प्रकार एक छोटे से बीज में विशाल वृक्ष छिपा रहता है तथा एक छोटे से सूत्र (Formulae) में अनन्त अर्थ समाहित रहता है, उसी प्रकार प्रत्येक प्रतीक के पीछे भष्य भावना की सुगंध छिपी रहती है । यह भावना ही प्रतीक को सार्थक, सामर्थ्यवान एवं प्राणवान बनाती है।

Chapter 16

(Bibliography)

 

Bibliography