मानव धर्म का विज्ञान 2

मानव धर्म का विज्ञान

(An Exploration of Science in Manava Dharm)

Part - II

Chapter 1

(मानव धर्म की विशेषताएं एवं पुनर्स्थापना)
मानव धर्म कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा। प्राकृतिक सिद्धान्तों पर आधारित होने के कारण यह सनातन एवम् शाश्वत है। परन्तु समय के परिवर्तन के साथ-साथ विभिन्न कारणों से समाज में मत-भिन्नता व्याप्त होने लगती है, फलस्वरूप जन साधारण में विभ्रम फैल जाता है। अतएव समय के द्वारा डाली हुई धूल-मिट्टी अर्थात् विभ्रम. को दूर करने के लिए परमात्मा अपनी शक्तियों को कई रूपों में पृथ्वी पर भेजता रहता है, जिससे समाज को सही दिशा का ज्ञान मिलता रहे। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा, मोहम्मद आदि-शंकराचार्य, कबीर, नानक, दयानन्द सरस्वती एवम् विवेकानन्द का पृथ्वी पर आविर्भाव मानव-धर्म के सिद्धान्तों पर जमी मैल (अन्धविश्वास एवम् कुरीतियाँ) को साफ करने हेतु ही हुआ था।

ऐसा प्रतीत होता है, कि भारतीय ऋषियों ने खोज के प्रारम्भिक काल में आधुनिक वैज्ञानिकों की भाँति ही पदार्थ विज्ञान (Material Sciences) की सभी शाखा-प्रशाखाओं, जैसे – भौतिकी (Physics), रसायन शास्त्र (Chemistry), नभो-भौतिकी (Astro Physics), जीव विज्ञान (Biology), शरीर-विज्ञान (Anatomy), शरीर क्रिया विज्ञान (Physiology) आदि की खोज की होगी। विज्ञान की इन शाखा प्रशाखाओं के ज्ञान से सम्भव है, कि उस काल के समाज में भी दैहिक सुखों की तृप्ति की ही माँग रही हो, परन्तु इन सुखों के उपभोग के परिणाम-स्वरूप जब समाज अत्यधिक अशान्ति से भर गया होगा, तब उन्हें अर्थ प्रवण समाज (Money Oriented Society) के स्थान पर मोक्ष प्रवण समाज (Moksh Oriented Society) रचना को प्राथमिकता देने का निर्णय करना पड़ा हो।

Chapter 2

(मानव धर्म का प्राकृतिक स्वरूप)

चित्त को सतत आनन्द की स्थिति में बनाए रखने तथा कर्म बन्धन से मुक्ति पाने हेतु जो नियम आचरण में लाये जायें, वही धर्म है। क्योंकि प्रकृति के नियमों के अनुसार चलने में ही मानव को सुख, शान्ति एवम् मृत्यु से मुक्ति मिलना सम्भव है, अतएव प्राकृतिक सिद्धान्त ही मानव धर्म के आधार हैं। जो लोग मानते हैं, कि ‘ईश्वर है’ उनका कहना है, कि परमात्मा सृष्टि का निर्माण, पालन एवम् संहार विशिष्ट नियमों के आधार पर करता है। इस सारी प्रक्रिया को यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो ज्ञात होगा, कि –

1. पूरी सृष्टि में सर्वत्र गति ही गति है। जैसे कि पृथ्वी, ग्रह, सूर्य, चन्द्र, राशियाँ, नक्षत्र

तथा सभी आकाशगंगाएं किसी अव्यक्त शक्ति केन्द्र के चारों ओर चक्कर लगाती हैं तथा साथ ही वे सतत् अपनी धुरी पर भी घूर्णन करती हैं।

2. अरबों आकाशगंगाओं का सृजन, शक्ति के स्थायित्व (Law of Conservation of Energy) के आधार पर सतत् होता रहता है तथा एक निश्चित काल के पश्चात् उनके अधिकांश भाग के विकीरण हो जाने पर वे कृष्ण शक्ति (Dark Energy) बनकर महाकाश में अदृश्य हो जाती हैं। ये सारी आकाशगंगाएं विघटन से पूर्व अपने प्रकाश कणों (Photon Particles) की वर्षा द्वारा मृत पड़ी अदृश्य आकाशगंगाओं को जीवन्त कर जाती हैं। इसी प्रकार सृष्टि का क्रम अनवरत चलता रहता है।

Chapter 3

(मानव संस्कृति का एकात्म स्वरूप)
पिछले सत्र में धर्म को परिभाषित करते हुए यह स्पष्ट किया जा चुका है, कि वैदिक ऋषियों ने धर्म एवम् संस्कृति का ताना-बाना इस कुशलता से बुना है, कि इन दोनों को अलग-अलग करके पहचानना आसान कार्य नहीं है। फिर भी इस सत्र में भारतीय संस्कृति को अलग से परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। संस्कृति का अर्थ है, मानव अथवा मानव समूह को एक विशेष प्रकार के संस्कारों से संस्कारित करना, ताकि उस समान विचारधारा वाले समूह के अनुयायियों में भ्रातृभाव एवम् एक-जुटता बनी रहे और उस संस्कृति के बाह्य एवम् वैचारिक दोनों स्वरूपों का स्थायी रूप से संरक्षण भी होता रहे। संस्कृति को दो भागों में बाँटकर देखा जा सकता है – 1. बाह्य स्वरूप 2. वैचारिक स्वरूप|

Chapter 4

(मानव संस्कृति का वैचारिक स्वरूप)

संस्कृति का स्थायित्व उसके श्रेष्ठ वैचारिक स्वरूप पर निर्भर करता है, इसीलिए ऋषियों ने इस क्षेत्र में ऐसे मानकों की स्थापना की, जो प्रकृति के व्यवहार पर आधारित थे। उन मनीषियों ने अपनी मानक खोजों द्वारा अनेक जटिल प्रश्नों को सुलझाया, उनमें ईश्वर के निराकार स्वरूप को सरल विधि से जन साधारण को समझाना भी एक था। इस प्रकार वैदिक धर्म मानव के विकास की श्रेष्ठतम सीमा बना। इस सत्र में प्रतीकोपासना के विकास क्रम पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
1. ब्रह्म का निराकार स्वरूप :- रामचरितमानस में भगवान शंकर पार्वती जी को निराकार परमात्मा का स्वरूप समझाते हुए कहते हैं –

चौ० :-

बिनु पद चलइ, सुनै बिनु काना, कर बिनु करम करइ विधि नाना। आनन रहित सकल रस भोगी, बिनु बानी बकता बड़ जोगी ।। तन बिनु परस नयन बिनु देखा, ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा । असि सब भाँति अलौकिक करनी, महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ३ ।।

Chapter 5

(मानव संस्कृति का प्रतिकात्मक स्वरूप)

चतुर्थ सत्र में सृष्टि सृजन प्रक्रिया की चर्चा करते समय अव्यक्त परमात्मा एवम् परमात्म शक्तियों के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा गया है तथा लगभग पिंछले सभी सत्रों में प्रतीकों के महत्व तथा उनके निर्माण एवम् खोज के सम्बन्ध में भी चर्चा की गयी है। इस अति महत्वपूर्ण विषय पर कुछ खास-खास प्रतीकों के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन करने से पूर्व यह पुनः बतला देना आवश्यक है, कि वैदिक धर्म के गूढ़ एवम् विशाल ज्ञान को अति सरल बनाने तथा उसे पीढ़ी-दर पीढ़ी सुरक्षित बनाए रखने हेतु प्रतीकों की भाषा में लेखन भारतीय मनीषियों की श्रेष्ठ सोच का द्योतक है। किसी व्यक्ति का चित्र अथवा मूर्ति वस्तुतः वह व्यक्ति तो नहीं है, परन्तु श्रेष्ठ चित्रकार द्वारा निर्मित उस व्यक्ति के चेहरे से उसका व्यक्तित्व तथा बहुत-सी मानसिकता दर्शाए जाने का यह एक उत्तम साधन तो है ही।

प्रतीक रचना के आधार :-

ऋषियों ने सृष्टि रचना का आधार प्रवृत्ति मूलक पाया, अतएव प्रकृति में उपलब्ध सूक्ष्म शक्तियों का प्रतीकीकरण प्रवृत्तियों (Tendencies) के आधार पर किया। मान लीजिए, कि न्यूट्रॉन कण की प्रवृत्ति को दर्शाना है, तो उसके व्यवहार का गहरायी से अध्ययन करना होगा। जैसे – न्यूट्रॉन कण में सम (1) आवेश (charge) होता है। बाह्य जगत का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, अतएव इस प्रवृत्ति को मानवीकृत प्रतीक के रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है, कि वह मानव गर्मी-सर्दी, मान-अपमान, दुःख-सुख सभी मनोभावों से ऊपर है अर्थात् वह शिव (शव+इव-शव जैसा) गुणों वाला है। क्योंकि आकाश गंगा के बाह्य भाग में अति तप्त तारे हैं अतएव अनुलोम विलोम सिद्धान्त के अनुसार केन्द्रीय स्तम्भ वर्फ से ढका होना चाहिए।

Chapter 6

(मानव धर्म दर्शन का साहित्यिक स्वरूप)
भारतीय ऋषियों ने प्रकृति के सिद्धान्तों का समाधि अवस्था में अपने चित्तपटल पर स्पष्ट रूप से दर्शन किया (देखा), अतः वैदिक धर्म को ‘धर्मदर्शन’ के नाम से भी पुकारा जाता है। निम्न पंक्तियों में ‘धर्मदर्शन’ के इतिहास पर प्रकाश डाला जा रहा है। “भारतीय धर्मदर्शन का इतिहास” विश्व-स्थिति :- सर्वप्रथम विश्व में सर्वत्र किसी न किसी रूप में ‘वैदिक-धर्म’ का ही प्रसार था, भले ही वह खण्डित रूप में ही क्यों न रहा हो । इतिहास इस तथ्य का साक्षी है, कि ‘वैदिक-धर्म’ ही विश्व का प्रथम धर्म है। विश्व के किसी भी भाग में आज पुरातत्व विभाग द्वारा खुदाई करने पर जहाँ-जहाँ भी मूर्तियाँ पायी जा रही हैं अथवा पूर्वकाल में थीं, वे सब इस तथ्य की ओर ही संकेत करती हैं, कि उन सभी स्थानों पर जो भी सभ्यता पनपी हो, वह सर्वप्रथम भारत से ही आयी थी, क्योंकि मूर्तियों की रचना का विचार मूलरूप से वैदिक धर्म द्वारा ही खोजा गया था। इन्डोनेशिया, मलेशिया एवम् थाईलैण्ड जैसे मुस्लिम बहुल देशों में तो हिन्दू धर्म पर आधारित रामकथा का मंचन, मन्दिरों का होना तथा सार्वजनिक स्थानों पर श्रीगणेश आदि की मूर्तियों का प्रदर्शन आज भी प्रचलित है। मूर्तियों के अतिरिक्त और भी ऐसे साक्ष्य हैं, जैसे – ‘धर्म या जीवन दर्शन’, ‘रीति-रिवाज’, ‘मान्यताएं और विश्वास’, ‘काल-ज्ञान’, व्यक्तियों, स्थानों और वस्तुओं के नामकरण, ‘भौगोलिक नाम’, ‘नाप-तोल’, ‘शिक्षा पद्धति’, ‘भाषा एवम् कला’ यह दर्शाते हैं, कि भारतीय संस्कृति एवम् धर्म का ही प्रचार-प्रसार सर्वप्रथम पूरे विश्व में हुआ था”,

Chapter 7

(मानव संस्कृति का विराट स्वरूप)

हमारा पृथ्वीलोक अपनी आकाशगंगा (विराट) का अंश है तथा हमारी पृथ्वी की हर घटना पर हमारी आकाशगंगा में स्थित तारों-सितारों का पूरा-पूरा नियंत्रण रहता है। अतएव मानव संस्कृति को पूर्णता से समझने हेतु विराट का दर्शन करना अर्थात् ब्रह्माण्ड में क्या कुछ हो रहा है इसकी समझ होना अत्यावश्यक है, तभी हम पूर्णता की समझ तक पहुँच सकते हैं। निम्न पंक्तियों में विज्ञान द्वारा आज तक की गयी खोजें तथा भारतीयों द्वारा पूर्वकाल में की गयी खोजों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है।

आधुनिक विज्ञान द्वारा सृष्टि का अध्ययन :- आज विज्ञान बड़े-बड़े अन्तरिक्ष यानों एवम्

रेडियो दूरबीनों (Radio-telescopes) के माध्यम से सृष्टि के निर्माण एवम् उसके निर्माता की खोज में रात-दिन अथक प्रयास कर रहा है। पृथ्वी पर मानव है, तो विज्ञान सोचता है, कि ऐसी विकसित मानवता कहीं न कहीं अन्य ग्रह, नक्षत्र अथवा किसी दूसरी आकाशगंगा में भी होनी चाहिए।

Chapter 8

(मानव संस्कृति में आरोग्यता का स्वरूप)

मानव जीवन में अनेक क्लेश, अभाव तथा दुःख हैं। उनमें से शरीर का रोगी होना कदाचित् सर्वाधिक दुःखदायी है। रोगी व्यक्ति न तो सांसारिक सुखों को भोग सकता है और न ही उसे परमार्थ की प्राप्ति हो सकती है। क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास है (Sound Mind lives in Sound Body) इसीलिए कहा गया है, कि “पहला सुख है निरोगी काया” । विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) द्वारा स्वास्थ्य की परिभाषा निम्न प्रकार से की गयी है

Health is a state of complete physical, mental and social well be- ing and not merely an absence of disease or infirmity. A fourth dimen- sion has also been suggested namely spiritual health.

अर्थ :- स्वास्थ्य का अर्थ है, कि व्यक्ति शरीर से, मन से तथा सामाजिक रूप से संतुलित हो। मात्र रोग एवम् दुर्बलता के अभाव को स्वस्थ होना नहीं कहा जा सकता। चौथा आयाम अध्यात्म से सम्बन्ध रखता है। यह भी इस परिभाषा में जोड़ने की सलाह दी गयी है।

 

Chapter 9

(मानव धर्म एवम् संस्कृति का सारांश)

पूर्वोक्त आठ सत्रों में मानव धर्म एवम् संस्कृति के स्वरूप को विल्कुल शुरू से पहचानने का प्रयास किया गया है। निम्न पंक्तियों में इसी विषय के कुछ अति महत्वपूर्ण विन्दुओं पर भिन्न दृष्टिकोण से विचार किया जा रहा है।

सृष्टि की चक्राकार गति :- सभी आकाशीय पिण्ड (आकाशगंगाओं समेत) चक्राकार गति

में सतत् गतिमान हैं। इस गति के कारण समय भी चक्राकार गति से गतिमान रहता है अर्थात् सृष्टि का सृजन, पालन एवम् संहार तीनों प्रक्रियाएं सतत् एक निश्चित अवधि तथा विशिष्ट क्रमानुसार चलती रहती हैं। हमारी आकाशगंगा किसी अव्यक्त केन्द्र की एक परिक्रमा (एक मनु) ” तीस करोड़, पचासी लाख, इकहत्तर हजार, पाँच सौ (30,85,71,500) सौर वर्षों में पूरी करती है तथा इस अवधि में हमारी पृथ्वी पर सृष्टि का सृजन क्रमशः प्रवृत्तियों के तथा पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर होता है।